लोकतन्त्र दो शब्दों से मिलकर बना है: लोक+तन्त्र, लोक का अर्थ है जनता तथा तन्त्र का अर्थ है शासन। लोकतन्त्र या प्रजातन्त्र एक ऐसी शासन प्रणाली है, जिसके अन्तर्गत जनता अपनी स्वेच्छा से निर्वाचन में आए हुए किसी भी दल को मत देकर अपना प्रतिनिधि चुन सकती है, तथा उसकी सत्ता बना सकती है।
प्रसिद्ध विचारक अब्राहम लिकंन ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा था कि लोकतंत्र का मतलब होता है, जनता द्वारा जनता का शासन।
हर वर्ष 15 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाया जाता है। लोकतंत्र दिवस का मुख्य उद्देश्य पूरे विश्व में लोकतंत्र को बढ़ावा देना है। 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस की शुरुआत की गई थी। सबसे पहले 2008 में अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाया गया। इसके तहत दुनिया के हर कोने में सुशासन लागू करना है। भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जा सकता है, क्योंकि यहां लगभग 60 करोड़ लोग अपने मत का प्रयोग करके सरकार को चुनते हैं।
पूरी दुनिया में दो तरह की लोकतंत्र प्रणाली है। एक संसदीय शासन प्रणाली और दूसरा राष्ट्रपति शासन प्रणाली। लेकिन दोनों ही प्रणालियों में जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करके अपने देश के जनप्रतिनिधि को चुनती है जो जनता के लिए काम करे। भारत, कनाडा, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में संसदीय शासन प्रणाली है। अमेरिका में राष्ट्रपति शासन प्रणाली है। राष्ट्रपति शासन प्रणाली में सारे निर्णय राष्ट्रपति के द्वारा लिए जाते हैं। जबकि संसदीय शासन प्रणाली में राष्ट्रपति के पास ये शक्ति नहीं होती है।
लोकतंत्र का इतिहास लंबा और ऊंचनीच से भरा हुआ है। भारत के प्राचीन गणतंत्रों अथवा यूरोप के एथेन्सी लोकतंत्र का इतिहास ही दो हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है और हम देखते हैं कि उस काल के मानव समाज में भी लोकतंत्रीय संस्थाएं किसी-न-किसी रूप में विद्यमान थीं।
प्राचीन काल मे भारत में सुदृढ़ व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं। विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों के वर्णन में भी इस बात के प्रमाण हैं।
प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनके चुनाव की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी भिन्न जरूर थी। सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद तथा कौटिल्य साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है परंतु उन्होंने वोट देने के अधिकार पर रोशनी नहीं डाली है।
वर्तमान संसद की तरह ही प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया गया था जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता था। गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केंद्रीय परिषद में 7707 सदस्य थे। वहीं यौधेय की केन्द्रीय परिषद के 5000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे।
किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही-गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था।
सबकी सहमति न होने पर बहुमत प्रक्रिया अपनायी जाती थी। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य होता था। बहुमत से लिये गये निर्णय को ‘भूयिसिक्किम’ कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग का सहारा लेना पड़ता था। तत्कालीन समय में वोट को ‘छन्द’ कहा जाता था। निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख-रेख करने वाला भी एक अधिकारी होता था जिसे ‘शलाकाग्राहक; कहते थे। वोट देने के लिए तीन प्रणालियां थीं-
(1) गूढ़क (गुप्त रूप से)
(2) विवृतक (प्रकट रूप से)
(3) संकर्णजल्पक (शलाकाग्राहक के कान में चुपके से कहना)
इस तरह हम पाते हैं कि प्राचीन काल से ही हमारे देश भारत में गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा थी। इसके अलावा सुव्यवस्थित शासन के संचालन हेतु अनेक मंत्रालयों का भी निर्माण किया गया था। उत्तम गुणों एवं योग्यता के आधार पर इन मंत्रालयों के अधिकारियों का चुनाव किया जाता था।
मंत्रालयों के प्रमुख विभाग थे-
(1) औद्योगिक तथा शिल्प संबंधी विभाग
(2) विदेश विभाग
(3) जनगणना
(4) क्रय-विक्रय के नियमों का निर्धारण
मंत्रिमंडल का उल्लेख हमें अर्थशास्त्र, मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत, इत्यादि में प्राप्त होता है। यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रंथों में इन्हें ‘रत्नि’ कहा गया। महाभारत के अनुसार मंत्रिमंडल में 6 सदस्य होते थे। मनु के अनुसार सदस्य संख्या 7-8 होती थी। शुक्र ने इसके लिए 10 की संख्या निर्धारित की थी।
इनके अलावा भी कई विभाग थे। इतना ही नहीं वर्तमान काल की तरह ही पंचायती व्यवस्था भी हमें अपने देश में देखने को मिलती है। शासन की मूल इकाई गांवों को ही माना गया था। प्रत्येक गांव में एक ग्राम-सभा होती थी। जो गांव की प्रशासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था से लेकर गांव के प्रत्येक कल्याणकारी काम को अंजाम देती थी। इनका कार्य गांव की प्रत्येक समस्या का निपटारा करना, आर्थिक उन्नति, रक्षा कार्य, समुन्नत शासन व्यवस्था की स्थापना कर एक आदर्श गांव तैयार करना था। ग्रामसभा के प्रमुख को ग्रामणी कहा जाता था।
सारा राज्य छोटी-छोटी शासन इकाइयों में बंटा था और प्रत्येक इकाई अपने में एक छोटे राज्य सी थी और स्थानिक शासन के निमित्त अपने में पूर्ण थी। समस्त राज्य की शासन सत्ता एक सभा के अधीन थी, जिसके सदस्य उन शासन-इकाइयों के प्रधान होते थे।
एक निश्चित काल के लिए सबका एक मुख्य अथवा अध्यक्ष निर्वाचित होता था। यदि सभा बड़ी होती तो उसके सदस्यों में से कुछ लोगों को मिलाकर एक कार्यकारी समिति निर्वाचित होती थी। यह शासन व्यवस्था एथेन्स में क्लाइस्थेनीज के संविधान से मिलती-जुलती थी। सभा में युवा एवं वृद्ध हर उम्र के लोग होते थे। उनकी बैठक एक भवन में होती थी, जो सभागार कहलाता था।
एक प्राचीन उल्लेख के अनुसार अपराधी पहले विचारार्थ ‘विनिच्चयमहामात्र’ नामक अधिकारी के पास उपस्थित किया जाता था। निरपराध होने पर अभियुक्त को वह मुक्त कर सकता था पर दण्ड नहीं दे सकता था। उसे अपने से ऊंचे न्यायालय भेज देता था। इस तरह अभियुक्त को छः उच्च न्यायालयों के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता था। केवल राजा को दण्ड देने का अधिकार था। धर्मशास्त्र और पूर्व की नजीरों के आधार पर ही दण्ड होता था।
देश में कई गणराज्य विद्यमान थे। मौर्य साम्राज्य का उदय इन गणराज्यों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। परन्तु मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात कुछ नये लोकतांत्रिक राज्यों ने जन्म लिया। यथा यौधेय, मानव और आर्जुनीयन इत्यादि।
शाक्य, लिच्छवि, अग्रेय, अम्बष्ठ, वज्जि, अरिष्ट, औटुम्वर, कठ, कुणिन्द, क्षुद्रक, पातानप्रस्थ इत्यादि प्राचीन भारत के कुछ प्रमुख गणराज्य थे जिनका उल्लेख प्राचीन गंथों में मिलता है।