कुछ कहानियां दिल को छू जाती हैं, कुछ कहानियां लोगों के ज़ेहन में इस कदर उतर जाती हैं कि ज़िंदगी के प्रति उनके नज़रिये पर भी प्रभाव डालती हैं. पर कुछ कहानियां मात्र काल्पनिक कहानियां न होकर ज़िंदगी की हकीकत होती हैं, ऐसी हकीकत जो सदियों तक लोगों को ज़िंदगी के मुश्किल रास्तों पर पूरे जोश के साथ आगे बढ़ने का हौसला प्रदान करती हैं ….ऐसी ही एक कहानी है ‘देसराज’ नाम के एक बुज़ुर्ग ऑटो ड्राइवर की जिसने जीवन की अनेकों झंझाओं से झूझते हुए हौसले और दृढ़ विश्वास की अनोखी मिसाल कायम की है.
पोती की पढ़ाई के लिए अपना मकान बेच स्वयं ऑटो में ज़िंदगी व्यतीत कर रहे देसराज एक अग्निशिखा की भांति ही उज्जवल हैं जिन्होंने खुद को जलाकर अपनी पोती के जीवन के अँधेरे को दूर किया है.
देसराज के दोनों बेटों की मौत हो चुकी है, ऐसे में सात लोगों के परिवार के भरण-पोषण, पोते-पोतियों की पढ़ाई का जिम्मा उनके ऊपर ही है. बकौल देसराज, “6 साल पहले मेरा सबसे बड़ा बेटा घर से गायब हो गया था. हमेशा की तरह वो अपना काम करने गया और फिर वापस नहीं आया.”
करीब एक सप्ताह के बाद देसराज के बड़े बेटे का शव मिला. घर की जिम्मेदारियां थीं, वो बेटे की मौत का शोक भी नहीं मना पाए और अगले ही दिन से ऑटो चलाने लगे. दो साल बाद उनके छोटे बेटे ने भी आत्महत्या कर ली.
ऐसे असहनीय दुखों के चलते देसराज पूरी तरह से टूट चुके थे. लेकिन उन्हें अपनी बहू और पोते-पोतियों की भी फिक्र थी. एक साक्षात्कार के दौरान ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे को उन्होंने बताया, “यह मेरी बहू और चार पोते-पोतियों की ही ज़िम्मेदारी ही थी, जिसने मुझे फिर से काम करने की ताकत दी. एक बार मेरी एक पोती ने मुझसे पूछा कि क्या अब उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी. मैंने उससे कहा कि वो जब तक पढ़ना चाहेगी, मैं उसे पढ़ाऊंगा. उस समय मेरी पोती नौंवी कक्षा में थी.”
देसराज बताते हैं कि परिवार को चलाने के लिए ज्यादा पैसों की जरुरत थी. ऐसे में वे सुबह छह बजे से ही ऑटो चलाने लगे. रात तक काम करके वे महीने में 10 हजार रुपये कमा लेते. इनमें से 6 हजार रुपये पोते-पोतियों की पढ़ाई में लग जाते. बाकी के चार हजार रुपये में सात सदस्यों का परिवार खाना खाता. देसराज बताते हैं कि कई दिन ऐसे होते कि उनके परिवार के पास खाने को कुछ होता ही नहीं था. इस बीच उनकी पत्नी भी बीमार पड़ीं. उनकी दवाइयों के लिए देसराज को लोगों से भीख तक मांगनी पड़ी.
बाद में उनकी पोती 12वीं में 80 प्रतिशत मार्क्स लाई. इसकी खुशी में देसराज ने उस पूरे दिन लोगों को फ्री में अपनी ऑटो में बिठाया. फिर उनकी पोती ने बीएड की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली जाने का सोचा. यह बात अपने दादा को बताई. देसराज जानते थे कि ऐसा करने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं. लेकिन अपनी पोती को पढ़ाने के लिए, उसके सपनों को सच्चाई में तब्दील करने हेतु उन्होंने अपना मकान बेच दिया. पोती को दिल्ली भेजा और बाकी के परिवार के सदस्यों को रिश्तेदारों के यहां. मकान नहीं बचा तो देसराज ऑटो में सोने लगे. उसी में खाना खाने लगे. वे कहते हैं, “शुरुआत में थोड़ी दिक्कत हुई. लेकिन अब तो आदत हो गई है. हां, कभी-कभी पैर में दर्द होता है. लेकिन जब पोती दिल्ली से फोन करके बताती है कि वो क्लास में फर्स्ट आई है, तो सारा दर्द दूर हो जाता है.”
यह कहानी बाहर आने के बाद फिलहाल देसराज की आर्थिक मदद करने के लिए बहुत से लोग सामने आए हैं. लेकिन देसराज ने जो कदम उठाया है उसकी जितनी सराहना की जाए वो कम है.
आज के परिवेश हम खुद को आधुनिक मानते हुए हमारी बेटियों के लिए बहुत कुछ करने की दुहाई देते हैं ……”हम बेटे-बेटियों में फर्क नहीं करते” ……”जितना बेटे को पढ़ाया, उतना ही बेटी को पढ़ाया” आदि बातों का प्रचार करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते पर क्या इस तरह की बातें कर के हम अपनी बेटियों पर अपना अहसान नहीं जता रहे? क्या इस तरह से हम हमारी बेटियों को अहसानों तले दबाने का प्रयत्न नहीं हर रहे?
देसराज की ज़िंदगी एक साक्षात प्रमाण है कि यदि आपको अपनी बेटियों के लिए कुछ करना ही है तो इस समर्पण के साथ कीजिये न की मात्र आधुनिकता की गति से कदम मिलाने की होड़ में खानापूर्ति कर बेटियों को हर वक़्त अहसास कराइये कि उनकी उपलब्धियां भी किसी अपने का रहम हैं, न की उनके खुद की काबिलियत.