16 दिसंबर को 50वां साल शुरू हो गए पाकिस्तान के टूटने और बांग्लादेश के बनने के । तीन दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान ने लड़ाई की शुरुआत तो कर दी, लेकिन भारतीय सैनिकों के पराक्रम के आगे महज 13 दिनों में ही घुटने टेकने पड़े थे।
पाकिस्तान का सैनिक तानाशाह याहिया खां अपने ही देश के पूर्वी भाग में रहने वाले लोगों का दमन कर रहा था। 25 मार्च, 1971 को उसने पूर्वी पाकिस्तान की जनभावनाओं को कुचलने का आदेश दे दिया। इसके बाद आंदोलन के अगुआ शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया। लोग भारत में शरण लेने लगे। इसके बाद भारत सरकार पर हस्तक्षेप का दबाव बनने लगा था।
भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सेनाध्यक्ष जनरल मानिक शॉ से बातचीत की। तब भारत के पास सिर्फ एक माउंटेन डिवीजन था और उसके पास भी पुल निर्माण की क्षमता नहीं थी। मानसून दस्तक देने वाला था। ऐसे में पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करना जोखिमभरा था। जनरल शॉ ने साफ कह दिया कि वह मुकम्मल तैयारी के साथ ही युद्ध के मैदान में उतरेंगे।
तीन दिसंबर, 1971 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कलकत्ता (कोलकाता) में जनसभा कर रही थीं। शाम के वक्त पाकिस्तानी वायुसेना ने पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर, आगरा आदि सैन्य हवाई अड्डों पर बमबारी शुरू कर दी। सरकार ने जवाबी हमले की योजना बनाई।
भारतीय सैनिकों ने पूर्वी पाकिस्तान के जेसोर व खुलना पर कब्जा कर लिया। 14 दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश पकड़ा कि ढाका के गर्वनमेंट हाउस में पाकिस्तान के शीर्ष अधिकारियों की बैठक होने वाली है। बैठक के दौरान ही भारतीय मिग-21 विमानों ने बम गिराकर उसकी छत उड़ा दी।
जनरल मानिक शॉ ने जनरल जेएफआर जैकब को 16 दिसंबर को आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तत्काल ढाका पहुंचने का संदेश दिया। पाकिस्तानी जनरल एएके नियाजी के पास ढाका में 26 हजार से ज्यादा सैनिक थे, जबकि भारत के पास वहां से 30 किलोमीटर दूर सिर्फ 3,000 सैनिक उपलब्ध थे। जनरल जैकब नियाजी के कमरे में पहुंचे और देखा कि मेज पर समर्पण के दस्तावेज रखे हुए थे। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ढाका पहुंचे। नियाजी ने रिवॉल्वर व बिल्ले लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिए। दोनों ने दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। 17 दिसंबर को 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया। करीब 3,900 भारतीय सैनिकों ने शहादत दी। इस प्रकार बांग्लादेश की नींव पड़ी।
हमारे राष्ट्र के इतिहास में 1971 भी ऐसा एक पड़ाव था जब हमें महान विजय प्राप्त हुई, जिसमें हमने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को दफन किया था। वह एक सैन्य विजय के साथ महान वैचारिक विजय भी थी। बस एक और कदम की दरकार थी कि कश्मीर विवाद समाप्त हुआ होता। हम पाकिस्तान के विचार को ही ध्वस्त कर देते।
:-आदित्य तिक्कू