राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में सोमवार मध्यरात्रि से 30 नवंबर तक पटाखों के इस्तेमाल और बिक्री पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया है। यह प्रतिबंध उन शहरों या कस्बों पर भी लागू हुआ, जहां हवा की गुणवत्ता, हवा गुणवत्ता सूचकांक में खराब की श्रेणी से नीचे चली जाती है।
दिल्ली और उसके आसपास के इलाके में हवा की गुणवत्ता रोज खराब होती जा रही है, जिसे देखते हुए एनजीटी ने कहा कि एनसीआर में लगातार प्रदूषण की सीमा बढ़ रही है और ऐसे में पूरी तरह से प्रतिबंध जरूरी है।
ओडिशा, राजस्थान, सिक्किम, केंद्र शासित क्षेत्र चंडीगढ़, और कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पहले ही संबंधित राज्यों व शहरों में पटाखों के इस्तेमाल और उसकी बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया।
क्या प्रकृति के दोहन, पर्यावरण की हानि आदि लगभग सभी मुद्दों के लिए हर बार हिन्दू त्योहारों पर दोषारोपण करना उचित है? क्रिसमस व् नया साल दस्तक दे रहा है और इस दिन पूरे विश्व में पटाखे फोड़े जाते हैं जिसमें भारत भी शामिल है तो क्या इन अवसरों पर भी इस प्रकार के प्रतिबंध लगाए जाएंगे? इसके अतिरिक्त बहुत से ऐसे त्योहार हैं जिनमें हिंसात्मक कृत्यों को शामिल किया जाता है | क्या
इस प्रकार के नृशंस कृत्यों से प्रकृति को खतरा नहीं? क्या त्योहारों की आड़ में ऐसी बर्बरता पर सख्त कदम उठाने की आवश्यकता नहीं?
हिन्दू मन से ब्रह्मा है, सृष्टि रचयिता है | इसका अर्थ यह तो नहीं कि सृष्टि की सम्पूर्ण रक्षा का दायित्व हिंदुओं पर ही हो | हिन्दुओं को प्रकृति विरोधी सिद्ध करने की सुनिश्चित प्रक्रिया चल रही है, इसे हर हाल में रोकना होगा अन्यथा हम स्वयं प्रश्न बन जाएंगे|
गत कुछ वर्षों से प्रदूषण की आड़ में दीपावली पर पटाखों पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है। हैरानी की बात है कि कठघरे में खड़े पटाखों की वायु प्रदूषण में प्रतिशत भागीदारी के आंकड़े खंगाले जाते हैं तो कुछ नहीं मिलता।
पटाखों पर प्रतिबंध की यात्रा 5 अक्तूबर, 2015 से शुरू होती है जब दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर एक याचिका (अर्जुन गोपाल बनाम भारत सरकार) दायर की गई। उसके बाद से सर्वोच्च न्यायालय में विभिन्न चरणों से गुजरते हुए इस प्रकरण का पटाक्षेप 2018 में दीवाली के दौरान पटाखों को प्रतिबंधित करने के साथ होता है। ऐसे में पूरे विषय को कुछ विशिष्ट परिप्रेक्ष्यों में देखने की जरूरत है। उदाहरण के लिए दिल्ली में प्रदूषण के कारक कौन-कौन से हैं, क्या उनमें दीपावली पर पटाखे छोड़ना भी एक कारण है? प्रदूषण को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन क्या कहते हैं? प्रदूषण की निगरानी करने वाले केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े क्या कहते हैं? अदालत ने किस आधार पर पटाखों को प्रतिबंधित किया?
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि दीपावली से ज्यादा प्रदूषण स्तर तो अन्य दिनों में रहता है। विषय को गहराई से समझने हेतु हमें उन आंकड़ों पर गौर करना होगा जो सर्वोच्च न्यायालय के सामने रखे गए। फैसला सुनाते वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न निकायों की ओर से प्रस्तुत रपट पर विचार किया। जैसे दिल्ली में प्रदूषण के कारणों के बारे में 10 नवम्बर, 2016 को सुनाया गया राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) का निर्णय। दिल्ली में वायु प्रदूषण और ग्रीन हाउस गैसों के बारे में 2016 में दिल्ली सरकार को सौंपी गई आईआईटी कानपुर की रपट, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) का हलफनामा, सर्वोच्च न्यायालय की ओर से सीपीसीबी अध्यक्ष की अगुआई में गठित समिति की रपट, डॉ. अरविंद कुमार और पशुओं के अधिकार से जुड़ी गौरी मौलेखी के हलफनामे, मीडिया रपट और खुद न्यायाधीशों के अनुभव।
12 सितम्बर, 2017 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाए फैसले के अनुच्छेद 10 में दिल्ली में प्रदूषण के कारणों का उल्लेख किया गया है। एनजीटी के हवाले से दिए गए कारणों में निर्माण गतिविधियां, कचरा जलाना, फसल अवशेषों को जलाना, गाड़ियों से निकलने वाला धुआं, सड़कों की धूल, बिजलीघरों से निकलने वाली ‘फ्लाई ऐश’ समेत औद्योगिक प्रदूषण और हॉट मिक्स संयंत्रों/स्टोन क्रशर से होने वाला प्रदूषण शामिल है। गौरतलब है कि इसमें पटाखों से होने वाले प्रदूषण का उल्लेख तक नहीं किया गया है।
कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जो अदालती कार्रवाई में शामिल नहीं हुए, लेकिन हैं बेहद अहम और इस मामले को एक नया आयाम देते हैं। सीपीसीबी ने अदालत को बताया कि दीपावली के दौरान दिल्ली में प्रदूषण का स्तर बढ़ा। यह सच था, लेकिन सीपीसीबी के ही वर्ष 2015 से 2020 के आंकड़े बताते हैं कि दीपावली की अपेक्षा साल के अन्य दिनों में प्रदूषण का स्तर कहीं अधिक था। कई मामले ऐसे भी मिले जिनमें दीपावली की तुलना में प्रदूषण का स्तर दुगुने से भी अधिक रहा।
यहां यह सवाल जरूर उठता है कि साल के केवल 2-3 दिन की बात करके किसी विषय से न्याय कैसे किया जा सकता है? यह तो सामान्य समझ की बात है कि अगर हमें प्रदूषण की समस्या से ईमानदारी और संजीदगी के साथ निपटना है तो साल के 362 दिन की बात करनी होगी, न कि केवल 2-3 दिन की बात करके अपने कर्तव्य को पूरा मान लेंगे। इस तरह क्या हम कभी भी समस्या के वास्तविक समाधान की स्थिति में आ सकेंगे?
सर्वोच्च न्यायालय ने जब पहली बार पटाखों पर रोक लगाई, तब वह एक तात्कालिक कदम था और बाद में जब उसने मामले से जुड़े तथ्यों पर विचार किया तो प्रतिबंध हटा लिया, क्योंकि पटाखों से प्रदूषण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था।
सवाल उठता है कि दिवाली के बहाने शुरु हुई इस “प्रदूषण-चर्चा” का हल आखिर क्या है? अगर अनुभव से बात करें तो दिल्ली जैसे महानगरों में प्राइवेट गाड़ियों को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया जाना एक स्थाई विकल्प दिखता है, किन्तु एनजीटी और सभी सम्बंधित ऑथोरिटीज की सहमति के बावजूद 10 साल पुरानी डीजल गाड़ियां तक सडकों से नहीं हट पाई हैं, तो सभी प्राइवेट गाड़ियों की बात ‘दिवास्वप्न’ ही है। वैसे भी ‘प्राइवेट गाड़ियों’ को पूरी तरह सड़कों से हटाना कई लोगों को यह व्यवहारिक निर्णय नहीं लग सकता है, पर आप इस बात को यूं समझ सकते हैं कि इसके अतिरिक्त हमारे पास कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचा है! अगर दिल्ली जैसे शहरों में रह रहे करोड़ों लोगों को बिमारियों से बचाना है तो हमें इस तरह के सख्त कदम उठाने की ही आवश्यकता है।
हाँ, इस बीच इससे उत्पन्न होने वाली अन्य समस्याओं के निराकरण के लिए हमें पब्लिक ट्रांसपोर्ट और शेयरिंग टैक्सी मॉडल को पूरी तरह से प्रमोट और व्यवस्थित जरूर करना होगा, जिससे यातायात और आवागमन की समस्याएं बाधित ना हों! ध्यान रहे अगर प्राइवेट गाड़ियों पर दिल्ली जैसे महानगरों में पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लगाया जाता है तो आने वाले कुछ सालों में प्रदूषण के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों की संख्या भयानक रुप से बढ़ेगी और तब हमारे पास किसी ऑड-ईवन फार्मूले के लिए कोई जगह नहीं होगी। दिल्ली में हालाँकि दो बार ऑड-इवन फॉर्मूला अप्लाई करने की कोशिश की गई, पर उसका कितना असर हुआ यह बात हम सब जानते हैं। बस पंपलेट बैनर छपवा कर वाहवाही ले ली गयी और दिल्ली हो गई प्रदूषण मुक्त!
अमूमन यह बात अक्सर सामने आती है कि हम यहां-वहां कूड़े इकट्ठे कर उसे जला देते हैं, जिससे प्रदूषण होता है। ऐसे में कूड़े के निस्तारण का ठोस उपाय भी किया जाना चाहिए। दिवाली पर पटाखों पर एक-दो दिन के लिए बैन लगाने से देश में प्रदूषण की मात्रा को कम करने के अलावा अन्य ठोस विकल्प व् रणनीति को अमलीजामा पहनाने की सख्त आवश्यकता है। इसके लिए चाहे प्राइवेट गाड़ियों को स्वेच्छा से छोड़कर पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करना पड़े अथवा फसलों को जलाना ना पड़े, वह सभी उपाय अवश्य करने होंगे । इसके साथ कुछ सामान्य उपाय भी आजमाये जा सकते हैं, जैसे ध्वनि प्रदूषण से बचने के लिए घर में टीवी, संगीत इत्यादि की आवाज कम रखना, अनावश्यक हॉर्न नहीं बजाना, लाउडस्पीकर का कम प्रयोग करना इत्यादि उपाय शामिल हो सकते हैं, तो जल-प्रदूषण भी एक बड़ी समस्या बन चुका है। इससे बचने के लिए नालों, तालाबों और नदियों में गंदगी न करना और पानी बर्बाद न करना शामिल हो सकता है, तो रासायनिक प्रदूषण की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए जैविक खाद का अधिकाधिक प्रयोग, प्लास्टिक की जगह कागज, पॉलिस्टर की जगह सूती कपड़े या जूट आदि का इस्तेमाल करना और प्लास्टिक की थैलियां कम से कम प्रयोग करना शामिल हों सकता है।
इसके साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे लगाना हमारे लिए अमृत हो सकता है, ताकि धरती की हरियाली बनी रहे और फ़ैल रहे प्रदूषण को कम करने में सहायता मिल सके।
इस दिशा में प्रश्न पुनः उठता है कि दिल्ली समेत भारत के अमूमन हर राज्य में जिस तरह से प्रदूषण बढ़ाने वाले कारकों पर लगाम कसने के लिए कोई सशक्त योजना को क्रियान्वित नहीं किया जा रहा, ऐसे में क्या सिर्फ पटाखों पर एक दो दिन की रोक की रणनीति, अन्य दिनों की अपेक्षा प्रदूषण नियंत्रण में अहम् भूमिका निभाने में कारगर हुई?
यह कहना किसी भी सूरतेहाल में गलत न होगा कि सरकार को प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में ज़मीनी स्तर पर मामले की गंभीरता को समझते हुए मजबूत कदम उठाने की आवश्यकता है न कि बेहतर कार्य के नाम पर मात्र खानापूर्ति करने की |